प्रदोष व्रत

हिन्दू धर्म में व्रत का अपना अलग ही महत्व है, हर एक व्रत के पीछे कुछ ना कुछ कहानी छुपी हुयी होती है  और उनका अपना अलग ही महत्व होता है, ये तो आप सभी जानते हो. सभी लोग अपनी मान्यता और श्रद्धा भाव के अनुसार व्रत करते है उन सब में से एक है प्रदोष व्रत।

प्रदोष व्रत को भगवान शिव के कई व्रतों में से एक है. इस व्रत को कोई भी स्त्री जो अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए करती है, या हम यु कहे की मन की सारी इच्छा पूरी करने के लिए यह व्रत किया जाता है.
तो आईये जानते है.
प्रदोष व्रत क्या है और कब किया जाता है.
प्रदोष व्रत का अर्थ है, सूर्यास्त के बाद तथा रात्रि का सबसे पहला पहर, जिसे सायकल कहा जाता है।  उस सायंकाल के तीसरे पहर को ही प्रदोष कल कल  कहा जाता है.
प्रदोष व्रत प्रत्येक पक्ष  कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को किया जाता है

प्रदोष व्रत का महत्व
कई जगह, अपनी भावना के अनुसार पति और पत्नी दोनों करते है, इस कहा जाता है , इस व्रत से क्र दोष की मुक्ति तथा संकटो का निवारण होता है.

प्रदोष व्रत की पूजा विधि 
प्रदोष व्रत में भगवान शिव की पूजा की जाती है. यह व्रत पीना पानी के किया जाता है. त्रयोदशी के दिन, पुरे  दिन व्रत करके प्रदोष काल में स्नान आदि कर के साफ और नये सफेद रंग के वस्त्र पहन कर पूर्व दिशा में मुह कर भगवान की पूजा की जाती है.
  1. सबसे पहले नहा-धोके  दीपक जलाकर पूजन करे
  2. सर्वपूज्य भगवान  गणेश का पूजन करे
  3. शिवलिंग जी की प्रतिमा को जल, दूध, पंचमरत से स्नान कराये। बिलपत्र, पुष्प, पूजा सामग्री से पूजन कर भोग लगाए
  4. ततपश्चात  कथा करे और आरती करे

प्रदोष व्रत साप्ताहिक किया जाता है
हर दिन की ये अलग व्रत कथा है

प्रदोष व्रत कथा

एक ग्राम में एक दीन-हीन ब्राह्मण रहता था । उसकी धर्मनिष्ठ पत्‍नी प्रदोष व्रत करती थी । उनके एक पुत्र था । एक बार वह पुत्र गंगा स्नान को गया । दुर्भाग्यवश मार्ग में उसे चोरों ने घेर लिया और डराकर उससे पूछने लगे कि उसके पिता का गुप्त धन कहां रखा है । बालक ने दीनतापूर्वक बताया कि वे अत्यन्त निर्धन और दुःखी हैं । उनके पास गुप्त धन कहां से आया । चोरों ने उसकी हालत पर तरस खाकर उसे छोड़ दिया । बालक अपनी राह हो लिया । चलते-चलते वह थककर चूर हो गया और बरगद के एक वृक्ष के नीचे सो गया । तभी उस नगर के सिपाही चोरों को खोजते हुए उसी ओर आ निकले । उन्होंने ब्राह्मण-बालक को चोर समझकर बन्दी बना लिया और राजा के सामने उपस्थित किया । राजा ने उसकी बात सुने बगैर उसे कारावार में डलवा दिया । उधर बालक की माता प्रदोष व्रत कर रही थी । उसी रात्रि राजा को स्वप्न आया कि वह बालक निर्दोष है । यदि उसे नहीं छोड़ा गया तो तुम्हारा राज्य और वैभव नष्ट हो जाएगा । सुबह जागते ही राजा ने बालक को बुलवाया । बालक ने राजा को सच्चाई बताई । राजा ने उसके माता-पिता को दरबार में बुलवाया । उन्हें भयभीत देख राजा ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘तुम्हारा बालक निर्दोष और निडर है । तुम्हारी दरिद्रता के कारण हम तुम्हें पांच गांव दान में देते हैं ।’ इस तरह ब्राह्मण आनन्द से रहने लगा । शिव जी की दया से उसकी दरिद्रता दूर हो गई।”
उक्त कथा सुनने के बाद शौनकादि ऋषि बोले- “हे दयालु! कृपया अब आप सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत के बारे में बताइए।”

सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत

सूत जी बताने लगे- सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत से शिव-पार्वती प्रसन्न होते हैं । व्रती के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं ।
व्रत कथा
एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी । उसके पति का स्वर्गवास हो गया था । उसका अब कोई आश्रयदाता नहीं था, इसलिए प्रातः होते ही वह अपने पुत्र के साथ भीख मांगने निकल पड़ती थी । भिक्षाटन से ही वह स्वयं व पुत्र का पेट पालती थी ।
एक दिन ब्राह्मणी घर लौट रही थी तो उसे एक लड़का घायल अवस्था में कराहता हुआ मिला । ब्राह्मणी दयावश उसे अपने घर ले आई । वह लड़का विदर्भ का राजकुमार था । शत्रु सैनिकों ने उसके राज्य पर आक्रमण कर उसके पिता को बन्दी बना लिया था और राज्य पर नियंत्रण कर लिया था, इसलिए वह मारा-मारा फिर रहा था । राजकुमार ब्राह्मण-पुत्र के साथ ब्राह्मणी के घर रहने लगा । एक दिन अंशुमति नामक एक गंधर्व कन्या ने राजकुमार को देखा और उस पर मोहित हो गई । अगले दिन अंशुमति अपने माता-पिता को राजकुमार से मिलाने लाई । उन्हें भी राजकुमार भा गया । कुछ दिओं बाद अंशुमति के माता-पिता को शंकर भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि राजकुमार और अंशुमति का विवाह कर दिया जाए ।उन्होंने वैसा ही किया । ब्राह्मणी प्रदोष व्रत करती थी । उसके व्रत के प्रभाव और गंधर्वराज की सेना की सहायता से राजकुमार ने विदर्भ से शत्रुओं को खदेड़ दिया और पिता के राज्य को पुनः प्राप्त कर आनन्दपूर्वक रहने लगा । राजकुमार ने ब्राह्मण-पुत्र को अपना प्रधानमंत्री बनाया । ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत के माहात्म्य से जैसे राजकुमार और ब्राह्मण-पुत्र के दिन फिरे, वैसे ही शंकर भगवान अपने दुसरे भक्तों के दिन भी फेरते हैं।

मंगल त्रयोदशी प्रदोष व्रत
सूत जी बताते है- मंगल त्रयोदशी प्रदोष व्रत व्याधियों का नाश करता है । ऋण से मुक्ति प्रदान करता है, सुख-शान्ति और श्रीवृद्धि करता है।
व्रत कथा
एक नगर में एक वृद्धा निवास करती थी । उसके मंगलिया नामक एक पुत्र था । वृद्धा की हनुमान जी पर गहरी आस्था थी । वह प्रत्येक मंगलवार को नियमपूर्वक व्रत रखकर हनुमान जी की आराधना करती थी । उस दिन वह न तो घर लीपती थी और न ही मिट्टी खोदती थी । वृद्धा को व्रत करते हुए अनेक दिन बीत गए । एक बार हनुमान जी ने उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेने की सोची । हनुमान जी साधु का वेश धारण कर वहां गए और पुकारने लगे -है कोई हनुमान भक्त जो हमारी इच्छा पूर्ण करे?’ पुकार सुन वृद्धा बाहर आई और बोली- आज्ञा महाराज?’ साधु वेशधारी हनुमान बोले- मैं भूखा हूं, भोजन करूंगा । तू थोड़ी जमीन लीप दे।वृद्धा दुविधा में पड़ गई । अंततः हाथ जोड़ बोली- महाराज! लीपने और मिट्टी खोदने के अतिरिक्त आप कोई दूसरी आज्ञा दें, मैं अवश्य पूर्ण करूंगी ।साधु ने तीन बार प्रतिज्ञा कराने के बाद कहा- तू अपने बेटे को बुला । मै उसकी पीठ पर आग जलाकर भोजन बनाउंगा ।वृद्धा के पैरों तले धरती खिसक ग
ई, परंतु वह प्रतिज्ञाबद्ध थी । उसने मंगलिया को बुलाकर साधु के सुपुर्द कर दिया । मगर साधु रूपी हनुमान जी ऐसे ही मानने वाले न थे । उन्होंने वृद्धा के हाथों से ही मंगलिया को पेट के बल लिटवाया और उसकी पीठ पर आग जलवाई । आग जलाकर, दुखी मन से वृद्धा अपने घर के अन्दर चली गई । इधर भोजन बनाकर साधु ने वृद्धा को बुलाकर कहा- मंगलिया को पुकारो, ताकि वह भी आकर भोग लगा ले।इस पर वृद्धा बहते आंसुओं को पौंछकर बोली -उसका नाम लेकर मुझे और कष्ट न पहुंचाओ।लेकिन जब साधु महाराज नहीं माने तो वृद्धा ने मंगलिया को आवाज लगाई । पुकारने की देर थी कि मंगलिया दौड़ा-दौड़ा आ पहुंचा । मंगलिया को जीवित देख वृद्धा को सुखद आश्‍चर्य हुआ । वह साधु के चरणों मे गिर पड़ी । साधु अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए । हनुमान जी को अपने घर में देख वृद्धा का जीवन सफल हो गया । सूत जी बोले- मंगल प्रदोष व्रत से शंकर (हनुमान भी रुद्र हैं) और पार्वती जी इसी तरह भक्तों को साक्षात् दर्शन दे कृतार्थ करते हैं ।

बुध त्रयोदशी प्रदोष व्रत
सूत जी आगे बोले- बुध त्रयोदशी प्रदोष व्रत से सर्व कामनाएं पुर्ण होती हैं । इस व्रत में हरी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए । शंकर भगवान की आराधना धूप, बेल-पत्रादि से करनी चाहिए।
व्रत कथा
एक पुरुष का नया-नया विवाह हुआ । विवाह के दो दिनों बाद उसकी पत्‍नी मायके चली गई । कुछ दिनों के बाद वह पुरुष पत्‍नी को लेने उसके यहां गया । बुधवार जो जब वह पत्‍नी के साथ लौटने लगा तो ससुराल पक्ष ने उसे रोकने का प्रयत्‍न किया कि विदाई के लिए बुधवार शुभ नहीं होता । लेकिन वह नहीं माना और पत्‍नी के साथ चल पड़ा । नगर के बाहर पहुंचने पर पत्‍नी को प्यास लगी । पुरुष लोटा लेकर पानी की तलाश में चल पड़ा । पत्‍नी एक पेड़ के नीचे बैठ गई । थोड़ी देर बाद पुरुष पानी लेकर वापस लौटा उसने देखा कि उसकी पत्‍नी किसी के साथ हंस-हंसकर बातें कर रही है और उसके लोटे से पानी पी रही है । उसको क्रोध आ गया । वह निकट पहुंचा तो उसके आश्‍चर्य का कोई ठिकाना न रहा । उस आदमी की सूरत उसी की भांति थी । पत्‍नी भी सोच में पड़ गई । दोनों पुरुष झगड़ने लगे । भीड़ इकट्ठी हो गई । सिपाही आ गए । हमशक्ल आदमियों को देख वे भी आश्‍चर्य में पड़ गे । उन्होंने स्त्री से पूछा उसका पति कौन है?’ वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई । तब वह पुरुष शंकर भगवान से प्रार्थना करने लगा- हे भगवान! हमारी रक्षा करें। मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने सास-श्‍वशुर की बात नहीं मानी और बुधवार को पत्‍नी को विदा करा लिया । मैं भविष्य में ऐसा कदापि नहीं करूंगा ।जैसे ही उसकी प्रार्थना पूरी हुई, दूसरा पुरुष अन्तर्धान हो गया । पति-पत्‍नी सकुशल अपने घर पहुंच गए । उस दिन के बाद से पति-पत्‍नी नियमपूर्वक बुध त्रयोदशी प्रदोष व्रत रखने लगे ।
गुरु त्रयोदशी प्रदोष व्रत
सूत जी फिर बोले- शत्रु विनाशक-भक्ति प्रिय, व्रत है यह अति श्रेष्ठ । वार मास तिथि सर्व से, व्रत है यह अति ज्येष्ठ ॥
व्रत कथा
एक बार इन्द्र और वृत्रासुर की सेना में घनघोर युद्ध हुआ । देवताओं ने दैत्य-सेना को पराजित कर नष्ट-भ्रष्ट कर डाला । यह देख वृत्रासुर अत्यन्त क्रोधित हो स्वयं युद्ध को उद्यत हुआ । आसुरी माया से उसने विकराल रूप धारण कर लिया । सभी देवता भयभीत हो गुरुदेव बृहस्पति की शरण में पहूंचे । बृहसप्ति महाराज बोले- पहले मैं तुम्हे वृत्रासुर का वास्तविक परिचय दे दूं । वृत्रासुर बड़ा तपस्वी और कर्मनिष्ठ है । उसने गन्धमादन पर्वत पर घोर तपस्या कर शिव जी को प्रसन्न किया । पूर्व समय में वह चित्ररथ नाम का राजा था । एक बार वह अपने विमान से कैलाश पर्वत चला गया । वहां शिव जी के वाम अंग में माता पार्वती को विराजमान्देख वह उपहासपूर्वक बोला- हे प्रभो! मोह-माया में फंसे होने के कारण हम स्त्रियों के वशीभूत रहते हैं । किन्तु देवलोक में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं हुआ कि स्त्री आलिंगनबद्ध हो सभा में बैठे।चित्ररथ के यह वचन सुन सर्वव्यापी शिवशंकर हंसकर बोले- हे राजन! मेरा व्यावहारिक दृष्टिकोण पृथक है । मैंने मृत्युदाता-कालकूट महाविष का पान किया है, फिर भी तुम साधारणजन की भांति मेरा उपहास उड़ाते हो!माता पार्वती क्रोधित हो चित्ररथ से संबोधित हुई- अरे दुष्ट! तूने सर्वव्यापी महेश्‍वर के साथ ही मेरा भी उपहास उड़ाया है । अतएव मैं तुझे वह शिक्षा दूंगी कि फिर तू ऐसे संतों के उपहास का दुस्साहस नहीं करेगा- अब तू दैत्य स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर, मैं तुझे शाप देती हूं ।जगदम्बा भवानी के अभिशाप से चित्ररथ राक्षस योनि को प्राप्त ओ त्वष्टा नामक ऋषि के श्रेष्ठ तप से उत्पन्न हो वृत्रासुर बना । गुरुदेव बृहस्पति आगे बोले- वृत्तासुर बाल्यकाल से ही शिवभक्त रहा है । अतः हे इन्द्र तुम बृहस्पति प्रदोष व्रत कर शंकर भगवान को प्रसन्न करो।देवराज ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन कर बृहस्पति प्रदोष व्रत किया । गुरु प्रदोष व्रत के प्रताप से इन्द्र ने शीघ्र ही वृत्रासुर पर विजय प्राप्त कर ली और देवलोक में शान्ति छा गई । बोलो उमापति शंकर भगवान की जय ।

शुक्र त्रयोदशी प्रदोष व्रत
सूत जी बोले-
अभीष्ट सिद्धि की कामना, यदि हो ह्रदय विचार ।
धर्म, अर्थ, कामादि, सुख, मिले पदारथ चार ॥
व्रत कथा प्राचीनकाल की बात है, एक नगर में तीन मित्र रहते थे एक राजकुमार, दूसरा ब्राह्मण कुमार और तीसरा धनिक पुत्र । राजकुमार व ब्राह्मण कुमार का विवाह हो चुका था । धनिक पुत्र का भी विवाह हो गया था, किन्तु गौना शेष था । एक दिन तीनों मित्र स्त्रियों की चर्चा कर रहे थे । ब्राह्मण कुमार ने स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा- नारीहीन घर भूतों का डेरा होता है।धनिक पुत्र ने यह सुना तो तुरन्त ही अपनी पत्‍नी को लाने का निश्‍चय किया । माता-पिता ने उसे समझाया कि अभी शुक्र देवता डूबे हुए हैं । ऐसे में बहू-बेटियों को उनके घर से विदा करवा लाना शुभ नहीं होता । किन्तु धनिक पुत्र नहीं माना और ससुराल जा पहुंचा । ससुराल में भी उसे रोकने की बहुत कोशिश की गई, मगर उसने जिद नहीं छोड़ी । माता-पिता को विवश होकर अपनी कन्या की विदाई करनी पड़ी । ससुराल से विदा हो पति-पत्‍नी नगर से बाहर निकले ही थे कि उनकी बैलगाड़ी का पहिया अलग हो गया और एक बैल की टांग टूट गई । दोनों को काफी चोटें आईं फिर भी वे आगे बढ़ते रहे । कुछ दूर जाने पर उनकी भेंट डाकुओं से हो गई । डाकू धन-धान्य लूट ले गए । दोनों रोते-पीटते घर पहूंचे । वहां धनिक पुत्र को सांप ने डस लिया । उसके पिता ने वैद्य को बुलवाया । वैद्य ने निरीक्षण के बाद घोषणा की कि धनिक पुत्र तीन दिन में मर जाएगा  जब ब्राह्मण कुमार को यह समाचार मिला तो वह तुरन्त आया । उसने माता-पिता को शुक्र प्रदोष व्रत करने का परामर्ष दिया और कहा- इसे पत्‍नी सहित वापस ससुराल भेज दें । यह सारी बाधाएं इसलिए आई हैं क्योंकि आपका पुत्र शुक्रास्त में पत्‍नी को विदा करा लाया है । यदि यह वहां पहुंच जाएगा तो बच जाएगा।धनिक को ब्राह्मण कुमार की बात ठीक लगी । उसने वैसा ही किया । ससुराल पहुंचते ही धनिक कुमार की हालत ठीक होती चली गई । शुक्र प्रदोष के माहात्म्य से सभी घोर कष्ट टल गए ।
शनि त्रयोदशी प्रदोष व्रत
सूत जी बोले – “पुत्र कामना हेतु यदि, हो विचार शुभ शुद्ध । शनि प्रदोष व्रत परायण, करे सुभक्त विशुद्ध ॥
व्रत कथा
प्राचीन समय की बात है । एक नगर सेठ धन-दौलत और वैभव से सम्पन्न था । वह अत्यन्त दयालु था । उसके यहां से कभी कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता था । वह सभी को जी भरकर दान-दक्षिणा देता था । लेकिन दूसरों को सुखी देखने वाले सेठ और उसकी पत्‍नी स्वयं काफी दुखी थे । दुःख का कारण था- उनके सन्तान का न होना । सन्तानहीनता के कारण दोनों घुले जा रहे थे । एक दिन उन्होंने तीर्थयात्र पर जाने का निश्‍चय किया और अपने काम-काज सेवकों को सोंप चल पडे । अभी वे नगर के बाहर ही निकले थे कि उन्हें एक विशाल वृक्ष के नीचे समाधि लगाए एक तेजस्वी साधु दिखाई पड़े । दोनों ने सोचा कि साधु महाराज से आशीर्वाद लेकर आगे की यात्रा शुरू की जाए । पति-पत्‍नी दोनों समाधिलीन साधु के सामने हाथ जोड़कर बैठ गए और उनकी समाधि टूटने की प्रतीक्षा करने लगे । सुबह से शाम और फिर रात हो गई, लेकिन साधु की समाधि नही टूटी । मगर सेठ पति-पत्‍नी धैर्यपूर्वक हाथ जोड़े पूर्ववत बैठे रहे । अंततः अगले दिन प्रातः काल साधु समाधि से उठे । सेठ पति-पत्‍नी को देख वह मन्द-मन्द मुस्कराए और आशीर्वाद स्वरूप हाथ उठाकर बोले- मैं तुम्हारे अन्तर्मन की कथा भांप गया हूं वत्स! मैं तुम्हारे धैर्य और भक्तिभाव से अत्यन्त प्रसन्न हूं।साधु ने सन्तान प्राप्ति के लिए उन्हें शनि प्रदोष व्रत करने की विधि समझाई और शंकर भगवान की निम्न वन्दना बताई
हे रुद्रदेव शिव नमस्कार । शिव शंकर जगगुरु नमस्कार ॥
हे नीलकंठ सुर नमस्कार । शशि मौलि चन्द्र सुख नमस्कार ॥
हे उमाकान्त सुधि नमस्कार । उग्रत्व रूप मन नमस्कार ॥
ईशान ईश प्रभु नमस्कार । विश्‍वेश्वर प्रभु शिव नमस्कार ॥
तीर्थयात्रा के बाद दोनों वापस घर लौटे और नियमपूर्वक शनि प्रदोष व्रत करने लगे । कालान्तर में सेठ की पत्‍नी ने एक सुन्दर पुत्र जो जन्म दिया । शनि प्रदोष व्रत के प्रभाव से उनके यहां छाया अन्धकार लुप्त हो गया । दोनों आनन्दपूर्वक रहने लगे।
त्रयोदशी व्रत उद्यापन विधि
कार्य सिद्धि के उपरान्त त्रयोदशी के दिन ही उद्यापन करें । एक दिन पूर्व गणेश पूजन करें । रात्रि में भजन-कीर्तन द्वारा जागरण करें । प्रातः स्नानादि के उपरान्त रंगीन पद्म-पुष्प अथवा वस्त्रों से मंडप को सजाएं । मंडप में शिव-पार्वती की मूर्ति स्थापित कर विधिपूर्वक पूजन करें । हवन में खीर की आहुति देते हुए ॐ उमा सहित शिवाय नमःमन्त्र का १०८ बार जप करें । हवन के बाद आरती उतारें और शान्ति पाठ करें । तत्पश्‍चात् दो ब्राह्मणों को भोजन कराएं तथा यथाशक्ति दान दें । ब्राह्मणों का आशीर्वाद लें ।
स्कन्ध पुराण में कहा गया है कि जो स्त्री-पुरुष विधि-विधान के साथ यह व्रत एवं उद्यापन करते हैं, भगवान शंकर-पार्वती उनकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं । फलस्वरूप उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है ।
उद्यापन

विधि-विधान से इस व्रत को करने पर सभी कष्ट दूर होते हैं और इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है । धर्मालुओं को ग्यारह त्रयोदशी अथवा वर्ष भर की २६ त्रयोदशी के व्रत करने के उपरान्त उद्यापन करना चाहिए ।
प्रदोष व्रत प्रदोष व्रत Reviewed by Unknown on 10:57 Rating: 5

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